Sunday 23 August 2015

अंधेरे में

सरला का समय जो चूला जलाने और चूला जलाने के लिए माचिस उठाने के बीच में धकेला हुआ था अप्रिय उल्टी व्याख्यान करते हुए स्व-मनोविश्लेषण का, जो खुद ही में था इतना गहरा और भारी कि उसने दूसरे कमरे की घड़ी को एक लंबा भाषण दे दिया, सरला के चूला जलाने के लिए माचिस उठाने से भी पहले।

भाषण का विषय था - क्या दुनिया दिमाग में हमेशा से भिनभिनाता हुआ मच्छर है या फिर वो साँप जो चुपचाप कोने से गुज़रकर कान में हल्की, खुजली वाली हिस्स छोड़ जाता है? घड़ी का मानना था कि दुनिया साँप है 'क्योंकि दुनिया चलती है, साँप चलता है, मैं भी चलती हूँ'। पर फिर घड़ी गलत साबित हुई क्योंकि कभी-कभी दुनिया को सारा समय बटोरकर आँखों के बीच नाक की हड्डी पर लेट जाना पसंद है। फिर वह एक ही बार में अपना भयंकर रूप दिखाकर आगे बढ़ने से मना कर देती। इसलिए, सरला के मनोविश्लेषण ने और कहा, कमरे में बंद रहने से ही चीज़ों की समझ नहीं आ जाती।

सरला इस बातचीत की ओर ध्यान ज़रा कम दे पायी। वो तो छत पर लेटकर अपनी छाती पे गिरती हुई सारी लाशों का वज़न तोलने में लगी थी। जिन्हें लंबी खुरदरी मालाएँ पहनाकर ज़मीन के थोड़ा ऊपर आसमान से लटकने को छोड़ दिया जाता है, वे सब हर रात सरला की ही छाती पर गिरकर पहाड़ बनाते हैं। फिर जब आज का पहाड़ पूरी तरह से जम गया और इसका तकरीबन वज़न भी लिख लिया गया, तब सिर्फ शरीर के बालों से गुज़रती हवा के आराम से ही सरला सो गई, अपने चूला जलाने के लिए माचिस उठाने के लिए उठने से भी पहले।

No comments: